सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती

कृषि एवं बागवानी में बेहतर पैदावार पाने के लिए मंहगे खरपतवारों और कीटनाशकों के प्रयोग से कृषि लागत में बेतहाशा बढोतरी हो रही है। कृषि लागत बढने के साथ किसानों की आय घटती जा रही है। जिसके चलते लाखों किसान खेती-बाड़ी को छोड़कर शहरों की तरफ रोजगार पाने के लिए रूख कर रहे हैं। कृषि-बागवानी में रसायनों और कीटनाशकों का प्रयोग बढने से मानव स्वास्य के साथ पर्यावरण पर भी विपरीत असर पड़ रहा है। किसानों में खेती-बाड़ी के प्रति रूचि को बढाने और कृषि लागत को कम कर उनकी आर्थिक स्थिति को बढाने के लिए हिमाचल प्रदेश सरकार ने प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना को लागू कर एक क्रांतिकारी कदम उठाया है। 9 मार्च 2018 को मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने इस योजना की घोषणा अपने बजट भाषण में की और इसके लिए 25 करोड़ का बजट प्रावधान भी किया गया। योजना को लागू करने के लिए महाराष्ट्र के कृषि वैज्ञानिक सुभाष पालेकर की कृषि विधि को प्रदेश के हरेक किसान तक पहुंचाने के लिए उनके नाम से 14 मई 2018 को सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती पद्धति को प्रदेश में शुरू है। इसे लागू करने के साथ ही हिमाचल प्रदेश प्राकृतिक खेती को अपनाने वाला दूसरा राज्य बन गया है। इससे पहले आंध्र प्रदेश में जीरो बजट नेचुरत्र फार्मिंग को शुरू किया गया है। गौर रहे कि कृषि बागवानी एवं इससे संबंद्ध क्षेत्र हिमाचल प्रदेश की सकल घरेलू आय में 40 प्रतिशत का योगदान एवं 69 प्रतिशत जनसंख्या को रोजगार प्रदान कर रहे हैं। प्रदेश में कुल 9.61 लाख किसान परिवार 9.55 लाख हैक्टेयर भूमि पर खेती कर रहे हैं, जिसमें केवल 8 फिसदी ही सिंचित क्षेत्र है। ऐसे में सरकार ने प्रदेश के सभी किसानों को वर्ष 2022 तक प्राकृतिक खेती से जोड़ने का लक्ष्य रखा है ताकि किसानों की आय बढने के साथ प्रदेश की सकल घरेलू आय में भी बढोतरी हो सके।

2547 किसानों ने शुरू की प्राकृतिक खेती

इस समय हिमाचल्र प्रदेश में 2547 किसानों ने 240 हैक्टेयर भूमि पर प्राकृतिक खेती पद्धति के तहत खेती-बाड़ी शुरू कर दी है और इन किसानों की ओर से पैदा किए जा रहे खादय उप्तादों को मार्केट में सही दाम मित्र रहे हैं। जिससे अन्य किसानों की रूचि भी प्राकृतिक खेती की ओर बढ रही है। सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती को प्रदेश में शुरू करने से पहले सरकार ने इस खेती पद्धति के जन्मदाता सुभाष पालेकर के दो मेगा ट्रेनिंग प्रोग्राम करवाए हैं। इनमें मेगा ट्रेनिंग प्रोग्राम में 1563 किसानों को प्रशिक्षण दिया गया है। इसके अलावा किसानों, और कृषि विभाग के अधिकारियों को फिल्ड में प्रैक्टिकल ना>लेज देने के लिए झांसी और कुरुक्षेत्र का दौरा भी करवाया गया है। किसानों को इस पद्धति के बारे में जागरूक करने के लिए सभी विकास खंडों की 3226 पंचायतों में एक दिवसीय जागरूकता कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जिसमें 8417 किसानों ने प्राकृतिक खेती के बारे में जानकारी प्राप्त की। इसी तरह प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में किसानों को जागरूक करने के लिए अनेक कार्यक्रम चलाए गए हैं जिनके तहत अभी तक 18 हजार से अधिक किसानों को सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती के बारे में जागरूक किया गया है।
सरकार ने वर्ष 2018 के लिए 500 किसानों को प्राकृतिक कृषि के तहत लाने का लक्ष्य रखा था, जिसे पूरा करते हुए कृषि विभाग ने 2047 किसानों को इससे जोड़ दिया है जबकि व 2019 में 50 हजार किसानों को प्राकृतिक खेती से जोड़ने का लक्ष्य रखा है।

किसानों को ये सुविधांए देगी सरकार

सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती को अपनाने वाले किसानों को सरकार अनेक सुविधांए देगी। हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल आचार्य देवव्रत की ओर से सराहनिय पहल शुरू की गई है। राज्यपाल का कहना है कि इस योजना से जुड़ने वाले किसानों को देसी नस्ल की गाय खरीदने के लिए 25 हजार की राशि दी जाएगी। इसके अलावा गौशाला के नालीकरण, खेती में प्रयोग होने वाले घनजीवामृत, जीवामृत को तैयार करने के लिए ड्रम दिए जा रहे हैं। किसानों के उप्तादों को बेचने के लिए ब्लाक स्तर पर दुकान मुहैया करवाने की योजना पर भी काम किया जा रहा है। इसके अलावा इस योजना से जुड़ने वाले किसानों के लिए प्रशिक्षण और एक्सपोजर विजिट का आयोजन भी समय-समय पर किया जाएगा।

कौन हैं सुभाष पालेकर ?

प्राकृतिक खेती पद्धति के जनक सुभाष पालेकर महाराष्ट्र में पिछले दो दशकों से कृषि में बिना किसी रसायनिक खादों और कीटनाशक के खेती कर रहे हैं। इन्होंने खेती की प्राकृतिक पद्धति को इजात किया है जिसमें देसी नस्ल की गाय के गोबर और गोमूत्र के प्रयोग खेती में प्रयोग होने वाले जीवामृत, घनजीवामृत, बीजामृत और कीट-पतंगों और बीमारियों से खेती के बचाए रखने के लिए दवाईयों को तैयार किया जाता है। सुभाष पालेकर की प्राकृतिक खेती पद्धति में बाजार से कुछ भी सामान को लाने की आवश्यकता नहीं होती है जिससे कृषि में लागत शून्य के बराबर होती है। कृषि के क्षेत्र में की गई इस बेहतरिन खोज को देखते हुए भारत सरकार ने वर्ष 2016 में सुभाष पालेकर को पदमश्री अवार्ड से नवाजा है। इतना ही नहीं सुभाष पालेकर की खेती पद्धति को यूनाइटेड नेशन में भी सराहना प्राप्त हो चुकी है।

जैविक खेती से अत्रग है प्राकृतिक खेती

प्राकृतिक खेती को कई लोग जैविक खेती के साथ जोड़कर देख रहे हैं जो कि गत्नत है। प्राकृतिक खेती कई मायनों में जैविक खेती से अलग है। जैविक खेती में गाय के गोबर का प्रयोग खाद के रूप में किया जाता है, इसमें भारी मात्रा में गाय के गोबर का प्रयोग किया जाता है। जबकि प्राकृतिक खेती में देसी गाय के गोबर का प्रयोग जैविक खाद के मुकाबले में नाम मात्र का किया जाता है। जैविक खेती पद्धति में देखा गया है कि जो किसान इसे शुरू करते हैं तो शुरूआत के कुछ वर्षा०& में उप्तादन में कमी देखी जाती है। जबकि प्राकृतिक खेती में पहले ही वर्ष में उप्तादन में बढोतरी देखी गई है और सात्र दर साल मिट्टी की उर्वरा क्षमता बढने के साथ उप्तादन में भी बढोतरी होती रही है। जैविक खेती को भी रसायनिक खेती की तरह बहुत खर्चित्रा माना गया है, जबकि प्राकृतिक खेती में देसी गाय के गोबर और गोमूत्र व कुछ घरेत्रू सामग्री के प्रयोग से ही खेती को किया जाता है। ऐसे में कृषि की लागत शून्य के बराबर रहती है।

रसायनों से दूषित हो रहे खादयान

आज खादों एवं अन्य रासायनों के अंधाधं:ध प्रयोग से किसानों की साख आम-उपभोकता बाजार में घटी है। स्वास्थ्य के प्रति संवेदनशील उपभोक्ताओं में यद्यपि सामान्य खादयान के अतिरिक्त फल सब्जियों की मांग बढी है, लेकिन रासायन दूषित होने के संदेह के कारण भवभीत हैं। पीजीआई चंडीगढ और ब्लूमबर्ग जन स्वास्थ्य स्कूल अमेरिका के एक संयुक्त अनुसंधान में पंजाब के कपास बहुल खेती वाले ग्रामीण इलाकों के 23 प्रतिशत किसानों के खून एव पेशाब में विभिन्ने किटनाशकों के अंश मिले हैं। इसका डिप्रेशन, उच्च रक्तचाप, घबराहट, थकान, अनिद्रा, बेहोशी इत्यादि बीमारियों से सीधा सम्बंध है। ऐसे समय में जैविक कृषि उप्ताद से एक आशा जगी थी लेकिन हाल ही में कुछ वैज्ञानिक अध्ययन तथा तथ्य इसे नकार रहे हैं। जैविक खेती गोबर के अधिकतम प्रयोग एवं वर्मी कंपोस्ट आधारित है। खेती में जब गोबर का हम अधिकतम प्रयोग करते हैं तो सूर्य की रोशनी एवं सामान्य तापमान जब 20 डिग्री सेल्सीयस से उपर जाता है तो यह पर्यावरण में विभिन्नो जहरीली गैसें जैसे कार्बन मोनो डाइआक्साइड, कार्बन मोनो आक्साइड और मिथेन इत्यादि का उत्सर्जन कर मौसम बदलाव में सक्रिय भूमिका निभाती हैं। इसे देखते हुए अब कृषि के क्षेत्र में लोगों को बेहतर खादयान मुहैया करवाने के लिए प्राकृतिक खेती ही एकमात्र विकल्प है।